शिवाजी के पुत्र के रूप में विख्यात संभाजी महाराज का जीवन भी अपने पिता छत्रपति शिवाजी महाराज के समान ही देश और हिंदुत्व को समर्पित रहा. सम्भाजी ने अपने बाल्यपन से ही राज्य की राजनीतिक समस्याओं का निवारण किया था. और इन दिनों में मिले संघर्ष के साथ शिक्षा-दीक्षा के कारण ही बाल शम्भुजी राजे कालान्तर में वीर संभाजी राजे बन सके थे.
छत्रपति संभाजी महाराज का इतिहास (Chhatrapati Sambhaji Maharaj History in Hindi)
नाम | संभाजी |
उपनाम | छवा और शम्भू जी राजे |
जन्मदिन | 14 मई 1657 |
जन्मस्थान | पुरन्दर के किले में |
माता | सईबाई |
पिता | छत्रपति शिवाजी |
दादा | शाहजी भोसले |
दादी | जीजाबाई |
भाई | राजाराम |
बहन | शकुबाई,अम्बिकाबाई,रणुबाई जाधव,दीपा बाई,कमलाबाई पलकर,राज्कुंवार्बाई शिरके |
पत्नी | येसूबाई |
मित्र और सलाहकार | कवि कौशल |
कौशल | संस्कृत के ज्ञाता,कला प्रेमी और वीर योद्धा |
युद्ध | 1689 में वाई का युद्ध |
शत्रु | औरंगजेब |
मृत्यु | 11 मार्च 1689 |
आराध्य देव | महादेव |
मृत्यु का कारण | औरंगजेब की दी गयी यातना |
विवाद | अपने परिवार में पिताजी शिवाजी से विवाद होने पर नजरबन्द किया और वहां से भाग निक्लौर मुगलों में जाकर शामिल हो गए और इस्लाम अपना लिया लेकिन मुगलों के अत्याचार को देखकर पुन: लौट आए.पारिवारिक राजनीति का शिकार हुए.
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उपलब्धि | औरंगजेब के सामने कभी घुटने नहीं टेके,अंतिम सांस तक योद्धा की भांति रहेहिन्दुओं के जबरन मुसलमान बन जाने पर उनकी घर वापिसी और सम्मान लौटाने का कार्य सफलता पुर्वक किया |
संभाजी: जन्म और शिक्षा (Sambhaji Birth and Education)
छत्रपति संभाजी महाराज का जन्म 1657 में 14 मई को पुरंदर किले में हुआ था. लेकिन संभाजी के 2 वर्ष के होने तक सईबाई का देहांत हो गया था, इसलिए संभाजी का पालन-पोषण शिवाजी की माँ जीजाबाई ने किया था. संभाजी महाराज को छवा कहकर भी बुलाया जाता था, जिसका मराठी में मतलब होता हैं शावक अर्थात शेर का बच्चा. संभाजी महाराज संस्कृत और 8 अन्य भाषाओ के ज्ञाता थे.
सम्भाजी राजा वीर छत्रपति शिवाजी के पुत्र थे, संभाजी की माता का नाम सईबाई था. ये छत्रपति शिवाजी की दूसरी पत्नी थी. सम्भाजी राजे के परिवार में पिता शिवाजी और माता सईबाई के अलावा दादा शाहजी राजे, दादी जीजाबाई और भाई-बहन थे. शिवाजी के 3 पत्नियां थी – साईंबाई,सोयरा बाई और पुतलाबाई.
साईबाई के पुत्र संभाजी राजे थे. सम्भाजी के एक भाई राजाराम छत्रपति भी थे, जो कि सोयराबाई के पुत्र थे. इसके अलावा संभाजी के शकुबाई, अम्बिकाबाई, रणुबाई जाधव, दीपा बाई, कमलाबाई पलकर, राज्कुंवार्बाई शिरके नाम की बहनें थी. सम्भाजी का विवाह येसूबाई से हुआ था और इनके पुत्र का नाम छत्रपति साहू था.
पिता से कड़वे संबंध (Chatrapati Shivaji Maharaj and Sambhaji Maharaj Relations)
सम्भाजी का बचपन बहुत कठिनाईयों और विषम परिस्थितियों से गुजरा था. संभाजी की सौतेली माता सोयराबाई की मंशा अपने पुत्र राजाराम को शिवाजी का उत्तराधिकारी बनाने की थी. सोयराबाई के कारण संभाजी और छत्रपति शिवाजी के मध्य सम्बन्ध ख़राब होने लगे थे. संभाजी ने कई मौकों पर अपनी बहादुरी भी दिखाई, लेकिन शिवाजी और उनके परिवार को संभाजी पर विश्वास नहीं हो पा रहा था. ऐसे में एक बार शिवाजी ने संभाजी को सजा भी दी, लेकिन संभाजी भाग निकले और जाकर मुगलों से मिल गए. यह समय शिवाजी के लिए सबसे मुश्किल समय था. संभाजी ने बाद में जब मुगलो की हिन्दुओ के प्रति नृशंसता देखी, तो उन्होंने मुगलों का साथ छोड़ दिया, उन्हे अपनी गलती का अहसास हुआ और शिवाजी के पास वापिस माफ़ी मांगने लौट आये.
संभाजी की कवि कलश से मित्रता (Sambhaji and kavi kalash)
बचपन में संभाजी जब मुग़ल शासक औरंगजेब की कैद से बचकर भागे थे, तब वो अज्ञातवास के दौरान शिवाजी के दूर के मंत्री रघुनाथ कोर्डे के दूर के रिश्तेदार के यहाँ कुछ समय के लिए रुके थे. वहां संभाजी लगभग 1 से डेढ़ वर्ष के लिए रुके थे, तब संभाजी ने कुछ समय के लिए ब्राह्मिण बालक के रूप में जीवन यापन किया था. इसके लिए मथुरा में उनका उपनयन संस्कार भी किया गया और उन्हें संस्कृत भी सिखाई गयी. इसी दौरान संभाजी का परिचय कवि कलश से हुआ. संभाजी का उग्र और विद्रोही स्वभाव को सिर्फ कवि कलश ही संभाल सकते थे.
संभाजी महाराज द्वारा लिखी रचनाये :
कलश के सम्पर्क और मार्गदर्शन से संभाजी की साहित्य की तरफ रूचि बढ़ने लगी. संभाजी ने अपने पिता शिवाजी के सम्मान में संस्कृत में बुधाचरित्र भी लिखा था.इसके अलावा मध्य काल के संस्कृत का उपयोग करते हुए संभाजी ने श्रृंगारिका भी लिखा था.
एक शासक के रूप में संभाजी (Sambhaji as a Ruler)
11 जून 1665 को पुरन्दर की संधि में शिवाजी ने यह सहमती दी थी, कि उनका पुत्र मुगल सेना को अपनी सेवाए देगा, जिस कारण मात्र 8 साल के संभाजी ने अपने पिता के साथ बीजापुर सरकार के खिलाफ औरंगजेब का साथ दिया था. शिवाजी और संभाजी ने खुद को औरंगजेब के दरबार में प्रस्तुत किया, जहाँ उन्हें नजरबंद करने का आदेश दे दिया गया, लेकिन वो वहां से किसी तरह बचकर भाग निकलने में सफल हुए.
30 जुलाई 1680 को संभाजी और उनके अन्य सहयोगियों को सत्ता सौपी गयी. सम्भाजी को अपने पिता केश्योगियो पर भरोसा नहीं था, इसलिए उन्होंने कवि कलश को अपना सलाहकार नियुक्त किया. जो कि हिन्दी और संस्कृत के विद्वान थे और गैर-मराठी होने के कारण भी उन्हें मराठा अधिकारियों ने पसंद नहीं किया, इस तरह संभाजी के खिलाफ माहौल बनता चला गया और उनके शासन काल में कोई बड़ी उपलब्धि भी हासिल नहीं की जा सकी.
सम्भाजी महाराज की उपलब्धियां (Achievements of Sambhaji)
सम्भाजी महाराज ने अपने छोटे से जीवन काल में हिन्दू समाज के हित में बहुत बड़ी-बड़ी उपलब्धियां हासिल की थी. जिसके प्रत्येक हिन्दू आभारी हैं. उन्होंने औरंगजेब की 8 लाख की सेना का सामना किया और कई युद्धों में मुघलो को पराजित भी किया. औरंगजेब जब महाराष्ट्र में युद्धों में व्यस्त था, तब उत्तर भारत में हिन्दू शासकों को अपना राज्य पुन: प्राप्त करने और शांति स्थापित करने के लिए काफी समय मिल गया. इस कारण ही वीर मराठाओ के लिए सिर्फ दक्षिण ही नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र के हिन्दू उनके ऋणी हैं. क्यूंकि उस समय यदि संभाजी औरंगजेब के सामने समर्पण कर लेते या कोई संधि कर लेते, तो औरगंजेब अगले 2-3 वर्षों में उत्तर भारत के राज्यों को वापिस हासिल कर लेता,और वहां की आम प्रजा और राजाओं की समस्या बढ़ जाती है,यह संभाजी के सबसे बड़ी उपलब्धियों में गिना जा सकता हैं. हालांकि सिर्फ संभाजी ही नहीं अन्य राजाओं के कारण भी औरगंजेब दक्षिण में 27 सालों तक विभिन्न लड़ाईयों में उलझा रहा, जिसके कारण उत्तर में बुंदेलखंड,पंजाब और राजस्थान में हिन्दू राज्यों में हिंदुत्व को सुरक्षित रखा जा सका.
संभाजी ने कई वर्षों तक मुगलों को महाराष्ट्र में उलझाए रखा. देश के पश्चिमी घाट पर मराठा सैनिक और मुगल कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं था.संभाजी वास्तव में सिर्फ बाहरी आक्रामको से हीं नहीं बल्कि अपने राज्य के भीतर भी अपने दुश्मनों से गिरे हुए थे. इन दोनों मोर्चों पर मिलने वाली छोटी छोटी सफलताओं के कारण ही संभाजी प्रजा के एक बड़े वर्ग के दिलों में अपनी जगह बना पा रहे थे.
वो समय कुछ ऐसा था कि लगातार कई समय तक पहाड़ और धरती वीर मराठो और मुगलों के खून से सनी रहती थी. फिर एक समय ऐसा आया जब सभी मराठा पहाड़ी से नीचे आ गए और इस तरह से मुगलों और मराठो के सेनापति अपनी सेनाओं के साथ आमने-सामने हो गए.लेकिन ये किसी मैदान में आमने-सामने होने जैसी स्थिति नहीं थी. इसमें मराठाओं का स्थान पहाड़ के निचले हिस्से से लेकर छोटी तक था, जबकि पहाड़ो के पास के मैदानों में मुघल सैनिको ने अपना डेरा जमा रखा था. ऐसे में लगभग 7 वर्षों तक आघात और प्रतिघात का क्रम चला. जिसमे मुगलों द्वारा गढ़ को जीतना और मराठाओ द्वारा वापिस हासिल करना लगातार कठिन हो रहा था. हालत ये थे कि उत्तर भारत में कुछ राज्य सोचने लगे थे कि औरंगजेब कभी लौटकर दिल्ली नहीं आएगा और अंतत: हिंदुत्व के साथ जंग में हार जायेगा. इस बीच संभाजी ने 1682 में औरंगजेब के पुत्र अकबर को शरण देने की पेशकश भी की, जिसे राजपूत राजाओं ने बचा लिया.
पूर्व- हिन्दुओं की घर वापिसी और धर्म परिवर्तन (Reconversion of old Hindu by Sambhaji)
शिवाजी महाराज के समय ही मुगलों के दबाव में हिन्दू से मुस्लिम बने भाइयों की घर वापिसी शुरू हो गयी थी. शिवाजी महाराज ने सबसे पहले नेताजी पल्लकर को पुन: हिन्दू बनाया था, जिन्हें कि जबरन मृत्यु का भय दिखाकर इस्लाम अपनाने पर मजबूर किया गया था. संभाजी ने अपने पिता के सपने को साकर करने के लिए, इसे आगे ले जाते हुए इस दिशा में कई सराहनीय कदम उठाये. संभाजी महाराज ने इसके लिए अलग से विभाग ही बना दिया था, जो कि पुन: धर्मान्तरण का कार्य देखता था. इस विभाग के अंतर्गत उन समस्याओं को देखा जाता था, जिसमें किसी व्यक्ति या परिवार को मुगलों ने जबरन इस्लाम बना दिया हो, लेकिन वे अपने हिन्दू धर्म को छोड़ना नहीं चाहते हो और वापिस हिन्दू बनने की मंशा रखते हो. इसके बारे में एक प्रसिद्ध किस्सा हैं कि हसुल गाँव में “कुलकर्णी नाम का ब्राह्मण हुआ करता था ,जिसे मुगलों ने जबरदस्ती मुसलमान बना दिया था. और उसने वापिस हिन्दू धर्म में आने की कोशिश की, लेकिन गाँव के ब्राह्मनों ने इसके लिए मना कर दिया,क्यूंकि उन्हें लगता था कि कुलकर्णी अब वेद-विरुद्ध पद्धति को अपनाकर अशुद्ध हो गया हैं. लेकिन अंत में वह जाकर संभाजी महाराज से मिला और उन्होंने कुलकर्णी के लिए पुन: धरमांतरण की विधि और अनुष्ठान का आयोजन किया. संभाजी द्वारा किए गए इस नेक प्रयास से उस समय जैसे कोई परिवर्तन की लहर उठी. और इस तरह से बहुत से हिन्दू से मुस्लिम बने लोग अपने धर्म में लौट आये.
संभाजी भगवान शिव के परम भक्त थे, जो अपने अंतिम समय तक मुगलों के सामने भी हिन्दू देव भगवान शिव का अनुसरण करते रहे. संभाजी का एक नाम शम्भूजी था, जो कि महा देव का ही एक नाम हैं. संभाजी को जब शिवाजी के साथ औरगंजेब की शरण में जाना पड़ा था, तब उन्होंने महाराष्ट्र से लेकर काशी विश्वनाथ से होते हुए दिल्ली तक की कठोर यात्रा की थी, जिसमे उनके जीवन के कई प्राम्भिक वर्ष निकल गए. इसी दौरान बाल शम्भु को महादेव में अपने इष्ट दिखने लगे और शम्भु राजे ने शिव-शम्भू की आरधना शुरू कर दी.
शिवाजी राजे की मृत्यु और हिंदुत्व के लिए संकट की घड़ी (Death of Shivaji and problems arose for hindutva)
वास्तव में महान शिवाजी के देहांत के बाद 1680 में मराठो को मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. औरंगजेब को लगा था कि शिवाजी के बाद उनका पुत्र संभाजी ज्यादा समय तक टिक नहीं सकेगा, इसलिए शिवाजी की मृत्यु के बाद 1680 में औरगंजेब दक्षिण की पठार की तरफ आया, उसके साथ 400,000 जानवर और 50 लाख की सेना थी. औरंगजेब ने बीजापुर की सल्तनत के आदिलशाह और गोलकोंडा की सल्तनत के कुतुबशाही को परस्त किया और वहां अपने सेनापति क्रमश: मुबारक खान और शार्जखन को नियुक्त किया. इसके बाद औरंगजेब ने मराठा राज्य का रुख किया और वहां संभाजी की सेना का सामना किया. 1682 में मुगलों ने मराठो के रामसेई दुर्ग को घेरने की कोशिश की लेकिन 5 महीने के प्रयासों के बाद भी वो सफल ना हो सके. फिर 1687 में वाई के युद्ध में मराठा सैनिक मुगलों के सामने कमजोर पड़ने लगे. वीर मराठाओं के सेनापति हम्बिराव मोहिते शहिद हो गए और सैनिक सेना छोडकर भागने लगे. संभाजी इसी दौरान संघमेश्वर में 1689 फरवरी को मुगलों के हाथ लग गए.
संभाजी पर औरंगजेब का अत्याचार (Aurngjeb cruelty on Sambhaji)
1689 तक स्थितियां बदल चुकी थी. मराठा राज संगमेश्वर में क्षत्रुओ के आगमन से अनभिज्ञ था. ऐसे में मुक़र्राब खान के अचानक आक्रमण से मुग़ल सेना महल तक पहुँच गयी और संभाजी के साथ कवि कलश को बंदी बना लिया. उन दोनों को कारागार में डाला गया और उन्हें वेद-विरुद्ध इस्लमा अपनाने को विवश किया गया.
औरंगजेब के शासन काल के आधिकारिक इतिहासकार मसिर प्रथम अम्बारी और कुछ मराठा सूत्रों के अनुसार कैदीयों को चैनों से जकडकर हाथी के हौदे से बांधकर औरंगजेब के कैंप तक ले जाया जाता था जो कि अकलूज में था. मुगल शासक तक ये खबर पहले ही पहुँच चुकी थी और उन्होंने इसके लिए एक बड़े महोत्सव के आयोजन की घोषणा की. मुगलों ने पूरे मार्ग में विजयी सेनापतियों के लिए उत्सव का आयोजन और स्वागत किया. मुगलो की जीत के जश्न के लिए शेख निज़ाम का चित्र बनवाया गया. मुगल पुरुष सड़कों पर और झरोखों से झांकती महिलाए बुरखे के भीतर से हारे हुए मराठा को देखने को उत्सुक थी, जबकि राह में पड़ने वाले हर मुगल उनकी हँसी उड़ा रहे थे और कोई तो अपमान में मुंह पर थूक भी रहा था. मुगलों में मिले हुए राजपूत सैनिकों को संभाजी के लिए बहुत सहानुभूति थी. संभाजी ने उन्होंने ललकारते हुए कहा था, कि या तो वे उन्हें खुला छोड़कर सन्मुख युद्ध कर ले या फिर उन्हें मारकर इस अपमान से मुक्ति दे, लेकिन मुगलों के डर से वो सैनिक खामोश थे. इस तरह 5 दिन तक चलने के बाद वो लोग औरंगजेब के दरबार में पहुंचे.
औरंगजेब संभाजी को देखकर अपने सिहासन से नीचे उतरकर आया और उसने कहा कि मराठाओ का आतंक कुछ ज्यादा ही हो गया था, वीर शिवाजी के पुत्र का मेरे सामने खड़े होना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, ऐसा कहकर औरंगजेब ने अपने अल्लाह को याद करने के लिए घुटने टेके. कवि कलश उस समय चैनो से बंधे हुए एक तरफ खड़े थे, लेकिन उन्होंने संभाजी की तरफ देखा और कहा कि हे मराठा राजे! देखिये आलमगीर खुद अपने सिंहासन से उठकर आपके आगे श्रद्धा से नतमस्तक होने आये हैं. कलश ने उन विपरीत परिस्थियों में भी वीरता दिखाते हुए कहा, कि औरंगजेब अपने दुश्मन संभाजी राजे के सामने घुटने टेक रहे हैं.
इससे औरंगजेब आग बबूला हो गया और उसने उन दोनों को तहखाने में डालने का आदेश दे दिया.औरंगजेब ने शेख निजाम को फ़तेह जंग खान-ए-आजम की उपाधि देने की घोषणा की, साथ ही 50,000 रूपये,एक घोडा,एक हाथी,और 6000 सैनिकों की टुकड़ी देने की घोषणा की. इसके अलावा उसके पुत्र इकलास और भतीजे को भी उपहार और सेना में उच्च पद देने की घोषणा की.
मुगल नायकों ने संभाजी को सुझाव दिया, कि वे यदि अपना पूरा राज्य और सभी किले औरंगजेब को सौप दे, तो औरंगजेब संभाजी की जान बख्श देगा. संभाजी ने इस बात से मना कर दिया. इसके बाद मुगल अपने उस उद्देश्य पर लौट आये, जिसके लिए उन्होंने भारत पर आक्रमण किया था. जिसमे गैर-मुस्लिम को मुस्लिम बनाना और जनता को लूटना और महिलाओं का शील भंग मुख्य कार्य था. संभाजी ये सब देखकर बहुत आहत हो रहे थे. ऐसे में संभाजी की हालत देख उन्हें फिर से औरंगजेब का ये सन्देश आया, कि वो यदि इस्लाम अपना लेते हैं, तो उन्हें ऐशो-आराम की जिंदगी दी जायेगी. लेकीन संभाजी ने साफ़ कह दिया, कि आलमगीर देश का सबसे बड़ा शत्रु हैं और वो ऐसी कोई संधि नहीं कर सकते, जो उनके राष्ट्र के सम्मान के विपरीत हो.
कठोर यातनाओ के बाद भी ना झुकने पर संभाजी और कलश को कैद से निकालकर घंटी वाली टोपी पहना दी.उनके हाथ में झुनझुना बाँध कर उन्हें ऊँटो से बांध दिया गया और तुलापुर के बाज़ार में घसीटा जाने लगा, मुगल लगातार उनका अपमान कर रहे थे और उन पर थूक रहे थे. उन्हें जबरदस्ती घसीटा जा रहा था, जिसके कारण झुनझुने की आवाज़ को साफ़ सुना जा सकता था. मुगल अपनी असलियत का परिचय देते हुए, ये सब देखकर क्रूरता से हंस रहे थे और उपहास कर रहे थे. मंत्री कलश भी ऐसे में हार मानाने वालो में से नहीं थे, वो लगातार भगवान का जाप कर रहे थे, जब उनके बाल खीच कर उन्हें इस्लाम कबूलने के लिए कहा जा रहा था, तब भी उन्होंने साफ़ तौर पर इससे ना कह दिया और कहा, कि हिंदुत्व सभी धर्मो से ऊपर सच्चा और शान्ति प्रिय धर्म हैं. मराठाओ के लिए अपने राजा के अपमान को देखना बहुत बड़ी बाध्यता थी.
संभाजी की मृत्यु (Sambhaji Maharaj Death)
औरंगजेब ने कई बार कहा कि वो संभाजी को क्षमा कर देगा, लेकिन वो यदि अब भी इस्लाम कबूल ले. संभाजी ने मुगलों का उपहास उड़ाते हुए कहा, कि वह मुस्लिमों के समान मुर्ख नहीं है, जो ऐसे मानसिक विक्षिप्त व्यक्ति (मोहम्मद) के सामने घुटने टेके. फिर संभाजी ने अपने हिन्दू आराध्य महादेव को याद किया और कहा कि धर्म-अधर्म के भेद को देखने और समझने के बाद वो अपना जीवन हज़ारो बार हिंदुत्व और राष्ट्र को समर्पित करने को तैयार हैं. और इस तरह संभाजी म्लेच्छ औरंगजेब के आगे नहीं झुके, इससे पहले तक किसी ने भी अल्लाह, मोहम्मद, इस्लाम के खिलाफ खुलकर इतना कुछ नहीं बोला था. औरंगजेब ने इससे क्रोधित होकर आदेश दिया, की संभाजी के घावों पर नमक छिड़का जाए. और उन्हें घसीटकर औरंगजेब के सिंहासन के नीचे लाया जाए. फिर भी संभाजी लगातार भगवान् शिव का नाम जपे चले जा रहे थे. फिर उनकी जीभ काट दी गई और आलमगीर के पैरो में राखी गयी, जिसने इसे कुत्तो को खिलाने का आदेश दे दिया. लेकिन औरंगजेब भूल गया था, कि वो जीभ काटकर भी संभाजी के दिल और दिमाग से कभी देशभक्ति और भगवद भक्ति को अलग नहीं कर सकता.
संभाजी अब भी मुस्कुराते हुए भगवान् शिव की आरधना कर रहे थे और मुगलों की तरफ गर्व भरी दृष्टि से देख रहे थे. इस पर उनकी आँखे निकाल दी गयी और फिर उनके दोनों हाथ भी एक-एक कर काट दिए गए.और ये सब धीरे-धीरे हर दिन संभाजी को प्रताड़ित करने के लिए किया जाने लगा. संभाजी के दिमाग में तब भी अपने पिताजी वीर शिवाजी की यादें ही थी, जो उन्हें प्रतिक्षण इन विपरीत परिस्थिति का सामना करने के लिए प्रेरित कर रही थी. हाथ काटने के भी लगभग 2 सप्ताह के बाद 11 मार्च 1689 को उनका सर भी धड से अलग किया गया. उनका कटा हुआ सर महाराष्ट्र के कस्बों में जनता के सामने चौराहों पर रखा गया, जिससे की मराठाओं में मुगलों का भी व्याप्त हो सके. जबकि उनके शरीर को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर तुलापुर के कुत्तों को खिलाया गया. लेकिन ये सब वीर मराठा पर अपना प्रभाव नहीं जमा सके. अंतिम क्षणों तक भगवान शिव का जाप करने वाले बहादुर राजा के इस बलिदान से हिन्दू मराठाओ में अपने राजा के प्रति सम्मान मुगलों के प्रति आक्रोश और बढ़ गया. एक अन्य किवंदती के अनुसार संभाजी का वध “वाघ नाखले” मतलब चीते के नाखुनो से किया गया था,उन्हें दो हिस्सों में चीरकर फाड़ा गया था और कुल्हाड़ी से सर काटकर पुणे के पास तुलापुर में भीमा नदी के किनारे पर फैका गया था.