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हरि सिंह नलवा – The Lion heart king in Sikh

hari singh nalwa
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हरि सिंह नलवा
पूरा नाम सरदार हरि सिंह नलवा
जन्म 28 अप्रॅल, 1791
जन्म भूमि गुजरांवाला, पंजाब
मृत्यु तिथि 30 अप्रैल, 1837
मृत्यु स्थान जमरूद (अब पाकिस्तान में)
पिता/माता गुरदयाल सिंह और धर्मा कौर
उपाधि ‘सरदार’
धार्मिक मान्यता सिक्ख धर्म
प्रसिद्धि महाराजा रणजीत सिंह के सेनाध्यक्ष
युद्ध मुल्तान युद्ध, जमरौद युद्ध, नोशेरा युद्ध
अन्य जानकारी एक दिन शिकार के समय जब महाराजा रणजीत सिंह पर अचानक शेर ने हमला किया, तब हरि सिंह ने उनकी रक्षा की थी। इस पर महाराजा के मुख से अचानक निकला “अरे तुम तो राजा नल जैसे वीर हो।” तभी से नल से हुए “नलवा” के नाम से वे प्रसिद्ध हो गये।


सरदार हरि सिंह नलवा (अंग्रेज़ीHari Singh Nalwa, जन्म- 28 अप्रॅल, 1791, गुजरांवाला, पंजाब; मृत्यु- 30 अप्रैल, 1837), महाराजा रणजीत सिंह के सेनाध्यक्ष थे। जिस एक व्यक्ति का भय पठानों और अफ़ग़ानियों के मन में, पेशावर से लेकर काबुल तक, सबसे अधिक था; उस शख्सियत का नाम जनरल हरि सिंह नलवा था। सिख फौज के सबसे बड़े जनरल हरि सिंह नलवा ने कश्मीर पर विजय प्राप्त कर अपना लोहा मनवाया। यही नहीं, काबुल पर भी सेना चढ़ाकर जीत दर्ज की। खैबर दर्रे से होने वाले इस्लामिक आक्रमणों से देश को मुक्त किया। 1831 में जमरौद की जंग में लड़ते हुए शहीद हुए। नोशेरा के युद्ध में हरि सिंह नलवा ने महाराजा रणजीत सिंह की सेना का कुशल नेतृत्व किया था। रणनीति और रणकौशल की दृष्टि से हरि सिंह नलवा की तुलना दुनिया के श्रेष्ठ सेनानायकों से की जा सकती है।

जीवन परिचय

हरि सिंह नलवा का जन्म 1791 में 28 अप्रैल को एक सिख परिवार, गुजरांवाला पंजाब में हुआ था। इनके पिता का नाम गुरदयाल सिंह और माता का नाम धर्मा कौर था। बचपन में उन्हें घर के लोग प्यार से “हरिया” कहते थे। सात वर्ष की आयु में इनके पिता का देहांत हो गया। 1805 ई. के वसंतोत्सव पर एक प्रतिभा खोज प्रतियोगिता में, जिसे महाराजा रणजीत सिंह ने आयोजित किया था, हरि सिंह नलवा ने भाला चलाने, तीर चलाने तथा अन्य प्रतियोगिताओं में अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया। इससे प्रभावित होकर महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लिया। शीघ्र ही वे महाराजा रणजीत सिंह के विश्वासपात्र सेना नायकों में से एक बन गये। एक बार शिकार के समय महाराजा रणजीत सिंह पर अचानक एक शेर के आक्रमण कर दिया, तब हरि सिंह ने उनकी रक्षा की थी। इस पर महाराजा रणजीत सिंह के मुख से अचानक निकला “अरे तुम तो राजा नल जैसे वीर हो।” तभी से नल से हुए “नलवा” के नाम से वे प्रसिद्ध हो गये। बाद में इन्हें “सरदार” की उपाधि प्रदान की गई।[1]

रणजीत सिंह के सेना नायक

हरि सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह के विजय अभियान तथा सीमा विस्तार के प्रमुख नायकों में से एक थे। अहमदशाह अब्दाली के पश्चात् तैमूर लंग के काल में अफ़ग़ानिस्तान विस्तृत तथा अखंडित था। इसमें कश्मीरलाहौरपेशावरकंधार तथा मुल्तान भी थे। हेरात, कलात, बलूचिस्तान, फारस आदि पर उसका प्रभुत्व था। हरि सिंह नलवा ने इनमें से अनेक प्रदेशों को महाराजा रणजीत सिंह की विजय अभियान में शामिल कर दिया। उन्होंने 1813 ई. में अटक, 1818 ई. में मुल्तान, 1819 ई.में कश्मीर तथा 1823 ई. में पेशावर की जीत में विशेष योगदान दिया। अत: 1824 ई. तक कश्मीर, मुल्तान और पेशावर पर महाराजा रणजीत सिंह का आधिपत्य हो गया। मुल्तान विजय में हरिसिंह नलवा की प्रमुख भूमिका रही। महाराजा रणजीत सिंह के आह्वान पर वे आत्मबलिदानी दस्ते में सबसे आगे रहे। इस संघर्ष में उनके कई साथी घायल हुए, परंतु मुल्तान का दुर्ग महाराजा रणजीत सिंह के हाथों में आ गया। महाराजा रणजीत सिंह को पेशावर जीतने के लिए कई प्रयत्न करने पड़े। पेशावर पर अफ़ग़ानिस्तान के शासक के भाई सुल्तान मोहम्मद का राज्य था। यहां युद्ध में हरि सिंह नलवा ने सेना का नेतृत्व किया। हरि सिंह नलवा से यहां का शासक इतना भयभीत हुआ कि वह पेशावर छोड़कर भाग गया। अगले दस वर्षों तक हरि सिंह के नेतृत्व में पेशावर पर महाराजा रणजीत सिंह का आधिपत्य बना रहा, पर यदा- कदा टकराव भी होते रहे। इस पर पूर्णत: विजय 6 मई, 1834 को स्थापित हुई।[1]

दृढ़ता और इच्छाशक्ति

ऐसा कहा जाता है कि एक बार हरि सिंह नलवा ने पेशावर में वर्षा होने पर अपने किले से देखा कि अनेक अफ़ग़ान अपने-अपने मकानों की छतों को ठोक तथा पीट रहे हैं, क्योंकि छतों की मिट्टी बह गई थी। पीटने से छतें, जो कुछ बह गई थीं, पुन: ठीक हो गर्इं थीं। इसे देखकर हरि सिंह नलवा के मन में विचार आया कि अफ़ग़ान की मिट्टी ही ऐसी है जो ठोकने तथा पीटने से ठीक रहती है। अत: हरि सिंह ने वहां के लड़ाकू तथा झगड़ालू अफ़ग़ान कबीलों पर पूरी दृढ़ता तथा शक्ति से अपना नियंत्रण किया तथा राज्य स्थापित किया।[1]

वीरगति

हरि सिंह ने अफ़ग़ानिस्तान से रक्षा के लिए जमरूद में एक मजबूत किले का भी निर्माण कराया। यह मुस्लिम आक्रमणकारियों के लिए मौत का कुआं साबित हुआ। अफ़ग़ानों ने पेशावर पर अपना अधिकार करने के लिए बार-बार आक्रमण किये। काबुल के अमीर दोस्त मुहम्मद के बेटे ने भी एक बार प्रयत्न किया। 30 अप्रैल 1837 ई. को जमरूद में भयंकर लड़ाई हुई। बीमारी की अवस्था में भी हरि सिंह ने इसमें भाग लिया तथा अफ़ग़ानों की 14 तोपें छीन लीं। परंतु दो गोलियां हरि सिंह को लगीं तथा वे वीरगति को प्राप्त हुए। फिर भी इस संघर्ष में पेशावर पर अफ़ग़ानों का अधिकार न हो सका।[1]

विशेष योगदान


सरदार हरि सिंह नलवा

सरदार हरि सिंह नलवा का भारतीय इतिहास में एक सराहनीय एवं महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत के उन्नीसवीं सदी के समय में उनकी उपलब्धियों की मिसाल पाना महज असंभव है। इनका निष्ठावान जीवनकाल हमारे इस समय के इतिहास को सर्वाधिक सशक्त करता है। परंतु इनका योगदान स्मरणार्थक एवं अनुपम होने के बावज़ूद भी पंजाब की सीमाओं के बाहर अज्ञात बन कर रहे गया है। इतिहास की पुस्तकों के पन्नो भी इनका नाम लुप्त है। जहाँ ब्रिटिश, रूसी और अमेरिकी सैन्य बलों को विफलता मिली, इस क्षेत्र में सरदार हरि सिंह नलवा ने अपनी सामरिक प्रतिभा और बहादुरी की धाक जमाने के साथ सिख-संत सिपाही होने का उदाहरण स्थापित किया था। यह इतिहास में पहली बार हुआ था कि पेशावरी पश्तून, पंजाबियों द्वारा शासित थे। इसलिये रणनीति और रणकौशल की दृष्टि से हरि सिंह नलवा की तुलना दुनिया के श्रेष्ठ जरनैलों से की जाती है।

श्रेष्ठतम सिख योद्धा

सरदार हरि सिंह नलवा का नाम श्रेष्ठतम सिक्खी योद्धाओं की गिनती में आता है। वह महाराजा रणजीत सिंह की सिख फौज के सबसे बड़े जनरल (सेनाध्यक्ष) थे। महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य (1799-1849) को ‘सरकार खालसाजी’ के नाम से भी निर्दिष्ट किया जाता था। सिख साम्राज्य, गुरु नानक द्वारा शुरू किये गए आध्यात्मिक मार्ग का वह एकगरत रूप था जो गुरु गोविंद सिंह ने खालसा की परंपरा से निश्चित कर के संगठित किया था। गुरु गोविंद सिंह ने मुग़लों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के लिए एक सैन्य बल की स्थापना करने का निर्णय लिया था। खालसा, गुरु गोविंद सिंह की उक्ति की सामूहिक सर्वसमिका है। 30 मार्च 1699 को गुरु गोविंद सिंह ने खालसा मूलतः “संत सैनिकों” के एक सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित किया। खालसा उनके द्वारा दिया गया उन सब चेलों का नाम था जिन्होंने अमृत संचार अनुष्ठान स्वीकार करके पांच तत्व- केश, कंघा, कड़ा, कच्छा, किरपान का अंगीकार किया। वह व्यक्ति जो खालसा में शामिल किया जाता, एक ‘खालसा सिख’ या ‘अमृतधारी’ कहलाता। यह परिवर्तन संभवतः मूलमंत्र के तौर से मानसिकता का जैसे हिस्सा बन जाता और आत्मविश्वास को उत्पन्न करके युद्ध भूमि में सामर्थ्य प्राप्त करने में सफलता प्रदान करता।[2]

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