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क्या है एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग, भारत में कितने लाख तक मिलता सालाना पैकेज?

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एयरोनॉटिकल इंजीनियर वो लोग होते हैं जो हवाई जहाजों से जुड़ी तकनीक पर काम करते हैं, ताकि हम सुरक्षित और बेहतर तरीके से अपनी मंजिल तक पहुंच सकें.



क्या आपने कभी सोचा है हवाई जहाज आसमान में बादल चीरते हुए कैसे उड़ते रहते हैं? ये प्लेन किसी जादू से नहीं उड़ते. असल में एयरोनॉटिकल इंजीनियर्स की मेहनत और दिमाग का कमाल है. प्लेन बनाने और उड़ाने की पूरी तकनीक एक खास फील्ड से समझ आती है. वो है- एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग.

ये इंजीनियर कई टेक्नॉलॉजी पर ध्यान देते हैं. विमान को उड़ाने के पीछे का साइंस, उसके इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम, कौन सा मजबूत सामान लगाए, इसकी इंजन तकनीक… इन सब तकनीकों पर एयरोनॉटिकल इंजीनियर काम करते हैं. ये ऐसी टेक्नॉलॉजी बनाते हैं जिनसे हवाई यात्रा बेहतर, सुरक्षित और बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए हो सके.

एयरोनॉटिकल इंजीनियर सिर्फ हवाई जहाज ही नहीं बनाते!
ये इंजीनियर सिर्फ हवाई जहाज ही नहीं, बल्कि हवाई जहाज इंजीनियरिंग की दुनिया इससे कहीं ज्यादा बड़ी है. ये इंजीनियर हर तरह की उड़ने वाली तकनीक बनाने में अपना दिमाग लगाते हैं. फौजी जहाज, हेलीकॉप्टर, ड्रोन और अंतरिक्ष यान भी इन्हीं के दिमाग की उपज हैं.

नए डिजाइन के विमानों की जांच या पुराने विमानों में सुधार के लिए नई तकनीक खोजना ये सब इनके काम हैं. साथ ही ये भी सुनिश्चित करते हैं कि ये सब चीजें सुरक्षा और प्रदूषण के नियमों के मुताबिक बनें.

अब पहले जानिए एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की कैसे हुई शुरुआत
एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग का इतिहास तो बहुत पुराना है, हालांकि इसे असली पहचान 19वीं सदी के आखिर और 20वीं सदी के शुरुआत में मिली जब हवाई जहाज बनाने वाले अग्रणी वैज्ञानिक सामने आए. ये वैज्ञानिक सर जॉर्ज केली के सिद्धांतों पर काम कर रहे थे. सर जॉर्ज असल में वो शख्स थे जिन्होंने सबसे पहले हवा में उड़ने के लिए जरूरी दो चीजों लिफ्ट (ऊपर उठने का बल) और ड्रैग (आगे बढ़ने में आने वाली हवा की रुकावट) को अलग-अलग बताया था.


दिसंबर 1903 में, राइट ब्रदर्स ने सबसे पहले इंजन से चलने वाले और हवा से भारी हवाई जहाज को उड़ाने में कामयाबी हासिल की. उनकी पहली यह उड़ान सिर्फ 12 सेकंड की थी. 1914 में पहला विश्व युद्ध शुरू होने के साथ ही विमानों को बेहतर बनाने की होड़ लग गई. इस तरह एयरोनॉटिकल इंजीनियर की डिमांड बढ़ी. ये डिमांड 1918 से 1939 के बीच भी लगातार जारी रही.


फिर 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया. तब विमान तकनीक में और तेजी से तरक्की हुई. 1944 में पहला जेट इंजन से चलने वाला विमान बना. इसके बाद फरवरी 1958 में उन सभी तकनीकों को शामिल करने के लिए ‘एयरोस्पेस इंजीनियरिंग’ शब्द का इस्तेमाल होने लगा. अक्टूबर 1957 (स्पुतनिक) और जनवरी 1958 (एक्सप्लोरर I) में पहले स्पेस सैटेलाइट अंतरिक्ष में छोड़े गए थे.


इसके बाद के दशकों में लगातार नए नए आविष्कार होते रहे. जनवरी 1970 में पहली बार कमर्शियल यात्री विमान न्यूयॉर्क से लंदन तक गया. यह बोइंग 747 विमान था. 1976 में कॉनकॉर्ड बना, जो आवाज से भी तेज उड़ने वाला पहला यात्री विमान था. 2007 में एयरबस A380 विमान पहली बार उड़ा, जो एक बार में सबसे ज्यादा (853) यात्री ले जा सकता है.

कैसे बनें एयरोनॉटिकल इंजीनियर?
एयरोनॉटिकल इंजीनियर बनने का सपना है तो सबसे पहले आपको स्कूल-कॉलेज में मैथ्स और साइंस सब्जेक्ट लेना जरूरी है. इसके बाद एयरोस्पेस इंजीनियर की डिग्री (B.Tech/BE Aeronautical Engineering) लेनी होगी. कुछ यूनिवर्सिटीज में एयरोनॉटिकल और एस्ट्रोनॉटिकल इंजीनियरिंग के लिए अलग-अलग कोर्स भी होते हैं. कुछ कोर्स ऐसे होते हैं जिनमें पहले दो साल आप जनरल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करते हैं और बाद के दो साल खासतौर से हवाई जहाज और अंतरिक्ष टेक्नॉलॉजी के बारे में पढ़ते हैं.

हालांकि सिर्फ बैचलर डिग्री लेकर भी आप जूनियर इंजीनियर की नौकरी पा सकते हैं, पर अगर आप बड़ी और नामी कंपनियों में काम करना चाहते हैं तो ज्यादा पढ़ाई (मास्टर डिग्री या पीएचडी) फायदेमंद हो सकती है. एयरोनॉटिकल और स्पेस टेक्नॉलॉजी की पढ़ाई आप अलग-अलग लेवल पर कर सकते हैं. जैसे डिप्लोमा, बैचलर डिग्री, मास्टर डिग्री या पीएचडी.


इन सभी कोर्स के दौरान आपको प्रेक्टिकली काफी कुछ सीखने का भी मौका मिल सकता है. जैसे ड्रोन उड़ाना, फ्लाइट सिम्युलेटर में विमान चलाना या असली विमान में टेस्ट फ्लाइट करना. अगर आप किसी दूसरे देश जैसे यूनाइटेड किंगडम में पढ़ना चाहते हैं तो वहां की अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ होना चाहिए. अगर आप अमेरिका जैसे किसी ऐसे देश से कोर्स करते हैं तो वहां इंजीनियर बनने के लिए कुछ खास परमिशन (लाइसेंस) लेनी पड़ सकती हैं.

आजकल हवाई जहाज बनाने वाली कंपनियों में एडवांस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल बहुत ज्यादा हो गया है. ये सॉफ्टवेयर आपस में बातचीत करने और जानकारी इकट्ठा करने/समझने में बहुत काम आते हैं. इस वजह से अब एयरोनॉटिकल इंजीनियर बनने के लिए कंप्यूटर प्रोग्रामिंग सीखना भी काफी अहम हो गया है.

क्या-क्या सब्जेक्ट पढ़ते हैं छात्र?
एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग के कोर्स में छात्र कई सब्जेक्ट पढ़ते हैं. जैसे- अंतरिक्ष और हवाई जहाज बनाने में लगने वाले सामान और उन्हें बनाने की टेक्नॉलॉजी (Aerospace Materials and Manufacturing Technology), विमानों का ढांचा (Aircraft Structures), ऊष्मगतिकी (Thermodynamics), तरल पदार्थों का बर्ताव और यांत्रिकी (Fluid Dynamics and Mechanics), उड़ान के सिद्धांत और वायुगतिकी (Flight Mechanics and Aerodynamics), विमानों को डिजाइन करना (Aircraft Design), विमान चलाने के लिए जरूरी उपकरण (Avionics Navigation) और भी बहुत कुछ.

एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद छात्र विमान, मिसाइल, अंतरिक्ष यान, ड्रोन आदि से जुड़े किसी भी क्षेत्र में काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं.

भारत में एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग के लिए कॉलेज

भारत के कई इंजीनियरिंग कॉलेज एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में स्नातक (बैचलर), परास्नातक (मास्टर) और शोध (डॉक्टरेट) स्तर के कोर्स कराते हैं. इन कोर्स में प्रवेश के लिए आपको फिजिक्स, कैमेस्ट्री और मैथ्स के साथ 12वीं क्लास में कम से कम 50% नंबर प्राप्त करने होंगे. जिन छात्रों के पास डिप्लोमा है, वे भी इस कोर्स के लिए आवेदन कर सकते हैं, बशर्ते उनके पास 10वीं क्लास में भी 50% नंबर हों.


  • भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), बॉम्बे
  • भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), कानपुर
  • हिंदुस्तान इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंस
  • भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc), बैंगलोर
  • भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), मद्रास
  • भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), खड़गपुर
  • भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान (IIST), त्रिवेंद्रम
  • सत्यभामा विश्वविद्यालय
  • मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी
  • भारतीय एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग संस्थान, देहरादून

नौकरी लगने पर कहां काम करते हैं इंजीनियर?
एयरोनॉटिकल इंजीनियरों को कभी ऑफिस में बैठकर नए जहाजों को डिजाइन करने और उन्हें बेहतर बनाने की प्लानिंग करनी होती है, तो कभी उन्हें सीधे उन जगहों पर जाना होता है जहां असली विमान या उनकी टेक्नॉलॉजी मौजूद होती है.

ज्यादातर इंजीनियर बड़ी-बड़ी विमान बनाने वाली कंपनियों में काम करते हैं. अमेरिका के ब्यूरो ऑफ लेबर स्टैटिस्टिक्स (BLS) की 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 33% एयरोस्पेस और एयरोनॉटिकल इंजीनियर हवाई जहाज के पुर्जे बनाने वाली कंपनियों में काम करते थे. इसके अलावा इंजीनियरिंग सर्विस देने वाली कंपनियां, सरकारी कंपनियां, नक्शा और रास्ता बताने वाले यंत्र बनाने वाली कंपनियां और रिसर्च एवं डेवलपमेंट करने वाली कंपनियां भी काफी तादाद में हवाई जहाज इंजीनियरों को काम पर रखती हैं.

हालांकि पिछले कुछ सालों में एयरोस्पेस इंडस्ट्री में थोड़ी गिरावट आई है लेकिन अनुमान है कि 2030 तक इसमें काफी बढ़ोतरी होगी. इसका कारण ये है कि ऐसे विमान बनाने की मांग बढ़ेगी जो कम आवाज करें, कम तेल की खपत करें और ज्यादा सुरक्षित हों.


एयरोनॉटिकल इंजीनियर कितनी होती है सैलेरी?
आपकी तनख्वाह कितनी होती है ये कई बातों पर निर्भर करती है. आप कहां रहते हैं, कितना अनुभव है, क्या जिम्मेदारियां हैं और आप किस कंपनी में काम करते हैं, यह सब तनख्वाह तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं. पर फिर भी कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि ब्रिटेन में एक नए एयरोनॉटिकल इंजीनियर को सालाना 27,000 यूरो से ज्यादा मिल सकते हैं.


अमेरिका में मई 2021 तक के आंकड़ों के अनुसार, एयरोनॉटिकल और एस्ट्रोनॉटिकल इंजीनियर एवरेज 122,970 डॉलर सालाना कमाते हैं. वहीं भारत में एयरोनॉटिकल इंजीनियर के सालाना पैकेज की शुरुआत 6 से 10 लाख के बीच होती है. आगे चलकर अनुभव के साथ पैकेज भी बढ़ता रहता है.

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